Sunday, 9 October 2022

योगबल से शरीर त्याग कैसे हो ? How to leave body by Yoga

योगबल से कैसे शरीर त्यागना है उसको गीता में भगवान बताते हैं ।

प्रयाणकाले मनसाऽचलेन
भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्
स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्।।8.10।।

अर्थात् :- प्रयाण के समय मनके द्वारा अचल भाव से भक्तिसे युक्त योगबल के द्वारा , भौहों के मध्यमें सम्यक रूपसे प्राण को आविष्ट करके उस परम दिव्य पुरुष को प्राप्त होता है।।

यदक्षरं वेदविदो वदन्ति
विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति
तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये।।8.11।।

अर्थात् :- वेद के जानने वाले विद्वान जिसे अक्षर कहते हैं; रागरहित यत्नशील पुरुष जिसमें प्रवेश करते हैं; जिसकी इच्छा से (साधक गण) ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं - उस पद (लक्ष्य) को मैं तुम्हें संक्षेप में कहूँगा।।

सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्।।8.12।।
 ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।।8.13।।

अर्थात् :- सब (इन्द्रियों के) द्वारों को संयमित कर मन को हृदय में स्थिर करके और अपने प्राण को मस्तक में स्थापित करके योगधारणा में स्थित हुआ, जो पुरुष ॐ, इस एक अक्षर ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ और मेरा स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है।।

क्यों ?
पहले ही बोल दिया

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः।।8.6।।

अर्थात् :- हे कौन्तेय ! (यह जीव) अन्तकाल में जिस किसी भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर को त्यागता है, वह सदैव उस भाव के चिन्तन के फलस्वरूप उसी भाव को ही प्राप्त होता है।।

अतः अन्तकाल में अपने आप वह भाव नहीं होगी कि व्यक्ति हृदय में मन को स्थिर करके मूर्द्धा में प्राण को स्थापित कर श्रीभगवान का स्मरण करते हुए शरीर छोड़े । उसके लिए सर्वदा "सदा तद्भावभावितः" का अभ्यास चाहिए , अर्थात् सर्वदा उसी भाव में रहना चाहिए, अर्थात् मूर्द्धा पर्यन्त प्राण ले कर श्रीभगवान के स्मरण का अभ्यास होना चाहिए । इसी अभ्यास के फलस्वरूप, अन्त समय में भी वह भाव अपने आप आएगा । 

ऋषि याज्ञवल्क्य ने इसे संक्षेप में सुंदर समझाया है :-

प्रभंजनं मूर्ध्निगतं सबह्निं ,
धिया समासाद्य गुरूपदेशात् ।
मूर्धानमुद्भिद्य पुनः खमध्ये ,
प्राणं त्यजोङ्कारमनुस्मर त्वम् ।।

अर्थात् :- गुरूपदेश अनुसार अग्निके साथ वायु जब मूर्द्धामें जाता है, (तब) तुम बुद्धिद्वारा पुनः ॐकार का स्मरण करो, मूर्द्धा को उपर की तरफ भेदते हुए प्राण को शून्य में त्याग करो ।

ऋषि याज्ञवल्क्य के शब्द बहुत अच्छे लगे इसलिये गीता के साथ समन्वय की चेष्टा की।

इससे पहले याज्ञवल्क्य जी ने कहा है

बलाकाश्रेणिवद् व्योम्नि विरराज समीरणः ।
आभ्रूमध्यात् सुषुम्नायां संस्थितो हुतभुक् तदा ।।
सजलाम्बुदमालासु विद्युल्लेखेव राजते ।।

अर्थात् :- 
आकाशमें उड़ते हुए बगुलों की पंक्ति की भाँति जब शुन्यमें वायु रहता है, तब भ्रूमध्य से उपर सुषुम्ना में अग्नि स्थित हो जाती है । कड़कती हुई विजली युक्त मेघमाला के जैसे यह शोभायमान होती है ।

अर्थात् पहले प्राण को भ्रूमध्य पर्यन्त लाना है । 
भ्रूमध्यस्थ आकाश में जब वायु स्थित होगी , तो भ्रूमध्य से उपर सुषुम्ना में अग्नि स्थित होगी । 

वही अग्नि वायु के साथ गुरूपदेश से फिर मूर्द्धा में जायेगा । 

वहाँ से मूर्द्धा को उद्भिद्य (ऊपर भेदते हुए) ॐ कार के साथ प्राण त्याग करना होगा

जो मस्तकमें प्राण लेनेका अभ्यास करते हैं , उनकी योग में कुछ उपलब्धि हो तो, सजगता के साथ मूर्द्धा भेद करके जाते हैं ।
उपलब्धि न भी हो तो भी , अभ्यास के कारण अन्त में श्वास अपने आप मस्तकसे होते हुए चला जाता है । व्यक्तिगत जीवन में ऐसा होते हुए सुना है (जिसने बताया योग का ज्ञान उनको नहीं, किन्तु मृतशय्या स्थित व्यक्ति ने कैसे आखरी श्वास ली उसका वर्णन किया । मृतशय्या पर जो थे वह गृहस्थ होते हुए भी एक मौन योगी के समान थे , अतः बात समझ में आ गयी)

Friday, 7 October 2022

सोऽहं हंसः (शिव महापुराण से) Soham Hamsah

हे वामदेव ! अब मैं आपके स्नेहवश ' हंस ' इस पदमें स्थित इसके प्रतिलोमात्मक प्रणव मन्त्रका उद्भव कहता हूँ , आप सावधानीपूर्वक सुनें | हंस - इस मन्त्रका प्रतिलोम करनेपर ' सोऽहम् ' ( पद सिद्ध होता है । ) इसके सकार एवं हकार - इन दो वर्णोंका लोप कर देनेपर स्थूल ओंकारमात्र शेष रहता है , यही शब्द परमात्माका वाचक है । तत्त्वदर्शी महर्षियोंके अनुसार उसे महामन्त्र समझना चाहिये । अब मैं सूक्ष्म महामन्त्रका उद्धार आपसे कह रहा हूँ ।। ३७–३९ ।। 

[ हंसः – इस पदमें तीन अक्षर हैं- ह् , अ , स । ] इनमें आदिस्वर ' अ ' पन्द्रहवें ( अनुस्वार ) और सोलहवें [ विसर्ग ] - के साथ है । सकारके साथवाला ' अ ' विसर्गसहित है । यदि वह सकारके साथ ' हं ' के आदिमें चला जाय तो सोऽहम् यह महामन्त्र हो जायगा ॥ ४० ॥ 

हंसका प्रतिलोम कर देनेपर ' सोऽहम् ' यह महामन्त्र सिद्ध होता है , जिसमें सकारका अर्थ शिव कहा गया है । वे शिव ही शक्त्यात्मक महामन्त्रके वाच्यार्थ हैं ऐसा ही निर्णय है ॥ ४१ ॥ 
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गुरुके द्वारा उपदेशके समय ' सोऽहम् ' – इस पदसे उसको शक्त्यात्मक शिवका बोध कराना ही अभीष्ट होता है । अर्थात् वह यह अनुभव करे कि मैं शक्त्यात्मक शिवरूप हूँ । इस प्रकार जब यह महामन्त्र जीवपरक होता है अर्थात् जीवकी शिवरूपताका बोध कराता है तब पशु ( जीव ) अपनेको शक्त्यात्मक एवं शिवांश जानकर शिवके साथ अपनी एकता सिद्ध हो जानेसे शिवकी समताका भागी हो जाता है ॥ ४२ १ / २ ॥ 

~ श्रीशिवमहापुराण, कैलास संहिता

Tuesday, 4 October 2022

सच्चा उपवास Real Fasting

सच्चा उपवास Real Fasting

महाभारत अनेक शिक्षाओं और जीवन संबंधी गूढ़ रहस्यों से भरा हुआ है जो सर्वदा जीवन को देखने का एक नया दृष्टिकोण देता है । ऐसे ही उपवास के विषय में गंगापुत्र भीष्म एवं धर्मराज युधिष्ठिर के बीच हुए वार्तालाप का एक छोटा अंश प्रस्तुत है जिससे सच्चा उपवास क्या होता है, उसका ज्ञान होगा ।

मासपक्षोपवासेन मन्यते यत् तपो जनाः ।
आत्मतन्त्रोपघातस्तु न तपस्तत्सतां मतम् ।। ४ ।।

अर्थात् :- राजन् ! साधारण जन जो महीने - पंद्रह दिन उपवास करके तप मानते हैं, उनका वह कार्य धर्म के साधनभूत शरीर का शोषण करनेवाला है; अतः श्रेष्ठ पुरुषों के मत में वह तप नहीं है ।

त्यागश्च संनतिश्चैव शिष्यते तप उत्तमम् ।
सदोपवासी च भवेत् ब्रह्मचारी सदा भवेत् ।। ५ ।।

अर्थात् :- उनके मतमें तो त्याग और विनय ही उत्तम तप है । इनका पालन करनेवाला मनुष्य नित्य उपवासी और सदा ब्रह्मचारी है ।

अन्तरा प्रातराशं च सायमाशं तथैव च ।
सदोपवासी स भवेत् न भुङ्क्तेऽन्तरा पुनः ।।१०।।

युधिष्ठिर ! जो प्रतिदिन प्रातः कालके सिवा फिर शामको ही भोजन करे और बीच में कुछ न खाय, वह नित्य उपवास करनेवाला होता है ।

~ भीष्म, श्रीमहाभारते, शान्तिपर्वणि, मोक्षधर्मपर्वणि, अमृतप्राशनिको नाम एकविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः

योगबल से शरीर त्याग कैसे हो ? How to leave body by Yoga

योगबल से कैसे शरीर त्यागना है उसको गीता में भगवान बताते हैं । प्रयाणकाले मनसाऽचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव। भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम...