Wednesday, 28 September 2022

श्री देवी अपराध क्षमापन स्तोत्र (अर्थ सहित)

श्री देवी अपराध क्षमापन स्तोत्र (अर्थ सहित)

न मन्त्रं नो यन्त्रं तदपि च न जाने स्तुतिमहो 
न चाह्वानं ध्यानं तदपि च न जाने स्तुतिकथाः । 
न जाने मुद्रास्ते तदपि च न जाने विलपनं 
परं जाने मातस्त्वदनुसरणं क्लेशहरणम् ॥ १ ॥ 

माँ ! मैं न मन्त्र जानता हूँ , न यन्त्र ; अहो ! मुझे स्तुतिका भी ज्ञान नहीं है । न आवाहनका पता है , न ध्यानका । स्तोत्र और कथाकी भी जानकारी नहीं है । न तो तुम्हारी मुद्राएँ जानता हूँ और न मुझे व्याकुल होकर विलाप करना ही आता है ; परंतु एक बात जानता हूँ , केवल तुम्हारा अनुसरण - तुम्हारे पीछे चलना । जो कि सब क्लेशोंको – समस्त दुःख - विपत्तियोंको हर लेनेवाला है ॥ १ ॥ 

विधेरज्ञानेन द्रविणविरहेणालसतया 
विधेयाशक्यत्वात्तव चरणयोर्या च्युतिरभूत् । 
तदेतत् क्षन्तव्यं जननि सकलोद्धारिणि शिवे 
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ॥ २ ॥ 

सबका उद्धार करनेवाली कल्याणमयी माता ! मैं पूजाकी विधि नहीं जानता , मेरे पास धनका भी अभाव है , मैं स्वभावसे भी आलसी हूँ तथा मुझसे ठीक ठीक पूजाका सम्पादन हो भी नहीं सकता ; इन सब कारणोंसे तुम्हारे चरणोंकी सेवामें जो त्रुटि हो गयी है , उसे क्षमा करना ; क्योंकि कुपुत्रका होना सम्भव है , किंतु कहीं भी कुमाता नहीं होती ॥२ ॥ 

पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहवः सन्ति सरलाः 
परं तेषां मध्ये विरलतरलोऽहं तव सुतः । 
मदीयोऽयं त्यागः समुचितमिदं नो तव शिवे 
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ॥ ३ ॥ 

माँ ! इस पृथ्वीपर तुम्हारे सीधे - सादे पुत्र तो बहुत से हैं , किंतु उन सबमें मैं ही अत्यन्त चपल तुम्हारा बालक हूँ ; मेरे- जैसा चंचल कोई विरला ही होगा । शिवे ! मेरा जो यह त्याग हुआ है , यह तुम्हारे लिये कदापि उचित नहीं है ; क्योंकि संसारमें कुपुत्रका होना सम्भव है , किंतु कहीं भी कुमाता नहीं होती ॥ ३ ॥ 

जगन्मातर्मातस्तव चरणसेवा न रचिता 
न वा दत्तं देवि द्रविणमपि भूयस्तव मया । 
तथापि त्वं स्नेहं मयि निरुपमं यत्प्रकुरुषे 
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ॥ ४ ॥ 

जगदम्ब ! मातः ! मैंने तुम्हारे चरणोंकी सेवा कभी नहीं की , देवि ! तुम्हें अधिक धन भी समर्पित नहीं किया ; तथापि मुझ जैसे अधमपर जो तुम अनुपम स्नेह करती हो , इसका कारण यही है कि संसारमें कुपुत्र पैदा हो सकता है , किंतु कहीं भी कुमाता नहीं होती ॥ ४ ॥ 

परित्यक्ता देवा विविधविधसेवाकुलतया 
मया पञ्चाशीतेरधिकमपनीते तु वयसि । 
इदानीं चेन्मातस्तव यदि कृपा नापि भविता 
निरालम्बो लम्बोदरजननि कं यामि शरणम् ॥५ ॥ 

गणेशजीको जन्म देनेवाली माता पार्वती ! [ अन्य देवताओंकी आराधना करते समय ] मुझे नाना प्रकारकी सेवाओंमें व्यग्र रहना पड़ता था , इसलिये पचासी वर्षसे अधिक अवस्था बीत जानेपर मैंने देवताओंको छोड़ दिया है , अब उनकी सेवा पूजा मुझसे नहीं हो पाती ; अतएव उनसे कुछ भी सहायता मिलनेकी आशा नहीं है । इस समय यदि तुम्हारी कृपा नहीं होगी तो मैं अवलम्बरहित होकर किसकी शरणमें जाऊँगा ॥ ५ ॥ 

श्वपाको जल्पाको भवति मधुपाकोपमगिरा 
निरातको रङ्को विहरति चिरं कोटिकनकैः । 
तवापर्णे कर्णे विशति मनुवर्णे फलमिदं 
जनः को जानीते जननि जपनीयं जपविधौ ॥ ६ ॥ 

माता अपर्णा ! तुम्हारे मन्त्रका एक अक्षर भी कानमें पड़ जाय तो उसका फल यह होता है कि मूर्ख चाण्डाल भी मधुपाकके समान मधुर वाणीका उच्चारण करनेवाला उत्तम वक्ता हो जाता है , दीन मनुष्य भी करोड़ों स्वर्ण - मुद्राओंसे सम्पन्न हो चिरकालतक निर्भय विहार करता रहता है । जब मन्त्रके एक अक्षरके श्रवणका ऐसा फल है तो जो लोग विधिपूर्वक जपमें लगे रहते हैं , उनके जपसे प्राप्त होनेवाला उत्तम फल कैसा होगा ? इसको कौन मनुष्य जान सकता है ॥ ६ ॥

चिताभस्मालेपो गरलमशनं दिक्पटधरो 
जटाधारी कण्ठे भुजगपतिहारी पशुपतिः । 
कपाली भूतेशो भजति जगदीशैकपदवीं 
भवानि त्वत्पाणिग्रहणपरिपाटीफलमिदम् ॥ ७ ॥ 

भवानी ! जो अपने अंगोंमें चिताकी राख - भभूत लपेटे रहते हैं , जिनका विष ही भोजन है , जो दिगम्बरधारी ( नग्न रहनेवाले ) हैं , मस्तकपर जटा और कण्ठमें नागराज वासुकिको हारके रूपमें धारण करते हैं तथा जिनके हाथमें कपाल ( भिक्षापात्र ) शोभा पाता है , ऐसे भूतनाथ पशुपति भी जो एकमात्र ' जगदीश ' की पदवी धारण करते हैं , इसका क्या कारण है ? यह महत्त्व उन्हें कैसे मिला ; यह केवल तुम्हारे पाणिग्रहणकी परिपाटीका फल है ; तुम्हारे साथ विवाह होनेसे ही उनका महत्त्व बढ़ गया ॥ ७ ॥ 

न मोक्षस्याकाङ्क्षा भवविभववाञ्छापि च न मे 
न विज्ञानापेक्षा शशिमुखि सुखेच्छापि न पुनः । 
अतस्त्वां संयाचे जननि जननं यातु मम वै 
मृडानी रुद्राणी शिव शिव भवानीति जपतः ॥ ८ ॥ 

मुखमें चन्द्रमाकी शोभा धारण करनेवाली माँ ! मुझे मोक्षकी इच्छा नहीं है , संसारके वैभवकी भी अभिलाषा नहीं है ; न विज्ञानकी अपेक्षा है , न सुखकी आकांक्षा ; अतः तुमसे मेरी यही याचना है कि मेरा जन्म ' मृडानी , रुद्राणी , शिव , शिव , भवानी ' – इन नामोंका जप करते हुए बीते ॥ ८ ॥ 

नाराधितासि विधिना विविधोपचारैः
किं रुक्षचिन्तनपरैर्न कृतं वचोभिः । 
श्यामे त्वमेव यदि किञ्चन मय्यनाथे
धत्से कृपामुचितमम्ब परं तवैव ॥ ९ ॥ 

माँ श्यामा ! नाना प्रकारकी पूजन सामग्रियोंसे कभी विधिपूर्वक तुम्हारी आराधना मुझसे न हो सकी । सदा कठोर भावका चिन्तन करनेवाली मेरी वाणीने कौन - सा अपराध नहीं किया है । फिर भी तुम स्वयं ही प्रयत्न करके मुझ अनाथपर जो किंचित् कृपादृष्टि रखती हो , माँ ! यह तुम्हारे ही योग्य है । तुम्हारी जैसी दयामयी माता ही मेरे जैसे कुपुत्रको भी आश्रय दे सकती है ॥ ९ ॥ 

आपत्सु मग्नः स्मरणं त्वदीयं 
करोमि दुर्गे करुणार्णवेशि । 
नैतच्छठत्वं मम भावयेथाः
क्षुधातृषार्ता जननीं स्मरन्ति ॥ १० ॥ 

माता दुर्गे ! करुणासिन्धु महेश्वरी ! मैं विपत्तियोंमें फँसकर आज जो तुम्हारा स्मरण करता हूँ [ पहले कभी नहीं करता रहा ] इसे मेरी शठता न मान लेना ; क्योंकि भूख - प्याससे पीड़ित बालक माताका ही स्मरण करते हैं ॥ १० ॥ 

जगदम्ब विचित्रमत्र किं 
परिपूर्णा करुणास्ति चेन्मयि । 
अपराधपरम्परापरं न हि माता समुपेक्षते सुतम् ॥ ११ ॥ 

जगदम्ब ! मुझपर जो तुम्हारी पूर्ण कृपा बनी हुई है , इसमें आश्चर्यकी कौन सी बात है , पुत्र अपराध - पर- अपराध क्यों न करता जाता हो , फिर भी माता उसकी उपेक्षा नहीं करती ॥ ११ ॥ 

मत्समः पातकी नास्ति पापघ्नी त्वत्समा न हि । 
एवं ज्ञात्वा महादेवि यथायोग्यं तथा कुरु ॥ १२ ॥ 

महादेवि ! मेरे समान कोई पातकी नहीं है और तुम्हारे समान दूसरी कोई पापहारिणी नहीं है ; ऐसा जानकर जो उचित जान पड़े , वह करो ॥ १२ ॥

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Saturday, 24 September 2022

भगवती स्वधा देवी का पूजन और स्तोत्र (अर्थ सहित)

भगवती स्वधा देवी का पूजन और स्तोत्र

श्रीमद्देवीभागवत के नवम स्कन्द में भगवती स्वधा देवी का दिव्य उपाख्यान एवं पूजन विधि तथा स्तोत्र का वर्णन है । स्वधा देवी ही पितरों तक कव्य पहुंचाती हैं और तृप्ति प्रदान करती हैं ।

आयें इस विषय का स्वाध्याय करते हैं ।

नारदजी बोले- 
वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ हे महामुने ! मैं भगवती स्वधाकी पूजाका विधान , उनका ध्यान | तथा स्तोत्र सुनना चाहता हूँ ; यत्नपूर्वक बतलाइये।।

श्रीनारायण बोले – 
हे ब्रह्मन् ! आप समस्त प्राणियोंका मंगल करनेवाला भगवती स्वधाका वेदोक्त ध्यान तथा स्तवन आदि सब कुछ जानते ही हैं तो फिर उसे क्यों जानना चाहते हैं ? तो भी लोगोंके कल्याणार्थ मैं उसे आपको बता रहा हूँ - शरत्कालमें आश्विनमासके कृष्णपक्षमें त्रयोदशी तिथिको मघा नक्षत्रमें अथवा श्राद्धके दिन यत्नपूर्वक देवी स्वधाकी विधिवत् पूजा करके श्राद्ध करना चाहिये ॥
अहंकारयुक्त बुद्धिवाला जो विप्र भगवती स्वधाका पूजन किये बिना ही श्राद्ध करता है , वह श्राद्ध तथा तर्पणका फल प्राप्त नहीं करता , यह सत्य है ॥ 
मैं सर्वदा स्थिर यौवनवाली , पितरों तथा देवताओंकी पूज्या और श्राद्धोंका फल प्रदान करनेवाली ब्रह्माकी मानसी कन्या भगवती स्वधाकी आराधना करता हूँ इस प्रकार ध्यान करके शिला अथवा मंगलमय कलशपर उनका आवाहनकर मूलमन्त्रसे उन्हें पाद्य आदि उपचार अर्पण करने चाहिये - ऐसा श्रुतिमें प्रसिद्ध है ॥
हे महामुने ! द्विजको चाहिये कि ' ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं स्वधादेव्यै स्वाहा ' इस मन्त्रका उच्चारण करके उनकी विधिवत् पूजा तथा स्तुति करके उन्हें प्रणाम करे ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! हे ब्रह्मपुत्र ! हे विशारद ! अब आप सभी मनुष्योंकी सम्पूर्ण कामनाएँ पूर्ण करनेवाले उस स्तोत्रको सुनिये , जिसका पूर्वकालमें ब्रह्माजीने पाठ किया था ॥

श्रीनारायण उवाच 

स्वधोच्चारणमात्रेण तीर्थस्नायी भवेन्नरः । 
मुच्यते सर्वपापेभ्यो वाजपेयफलं लभेत् ॥
स्वधा स्वधा स्वधेत्येवं यदि वारत्रयं स्मरेत् । 
श्राद्धस्य फलमाप्नोति बलेश्च तर्पणस्य च ॥ 
श्राद्धकाले स्वधास्तोत्रं यः शृणोति समाहितः । 
स लभेच्छ्राद्धसम्भूतं फलमेव न संशयः ॥
स्वधा स्वधा स्वधेत्येवं त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नरः । 
प्रियां विनीतां स लभेत्साध्वीं पुत्रगुणान्विताम् ॥
पितॄणां प्राणतुल्या त्वं द्विजजीवनरूपिणी ।
श्राद्धाधिष्ठातृदेवी च श्राद्धादीनां फलप्रदा ॥
नित्या त्वं सत्यरूपासि पुण्यरूपासि सुव्रते । 
आविर्भावतिरोभावौ सृष्टौ च प्रलये तव ॥
ॐ स्वस्तिश्च नमः स्वाहा स्वधा त्वं दक्षिणा तथा । 
निरूपिताश्चतुर्वेदैः प्रशस्ता कर्मिणां पुनः ||
कर्मपूर्त्यर्थमेवैता ईश्वरेण विनिर्मिताः । 
इत्येवमुक्त्वा स ब्रह्मा ब्रह्मलोके स्वसंसदि ॥
तस्थौ च सहसा सद्यः स्वधा साविर्बभूव ह | 
तदा पितृभ्यः प्रददौ तामेव कमलाननाम् ॥
तां सम्प्राप्य ययुस्ते च पितरश्च प्रहर्षिताः । 
स्वधास्तोत्रमिदं पुण्यं यः शृणोति समाहितः । 
स स्नातः सर्वतीर्थेषु वाञ्छितं फलमाप्नुयात् ॥

अर्थात्:-
श्रीनारायण बोले –
'स्वधा ' शब्दका उच्चारण करनेमात्रसे मनुष्य तीर्थस्नायी हो जाता है । वह सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है तथा वाजपेययज्ञका फल प्राप्त कर लेता है ॥
यदि मनुष्य स्वधा , स्वधा , स्वधा - इस प्रकार तीन बार स्मरण कर ले तो वह श्राद्ध , बलिवैश्वदेव तथा तर्पणका फल प्राप्त कर लेता है ॥
जो व्यक्ति श्राद्धके अवसरपर सावधान होकर स्वधास्तोत्रका श्रवण करता है , वह श्राद्धसे होनेवाला सम्पूर्ण फल प्राप्त कर लेता है , इसमें सन्देह नहीं है ॥
जो मनुष्य त्रिकाल सन्ध्याके समय स्वधा , स्वधा , स्वधा - ऐसा उच्चारण करता है ; उसे पुत्रों तथा सद्गुणोंसे सम्पन्न , विनम्र , प्रिय तथा पतिव्रता स्त्री प्राप्त होती है ॥
हे देवि ! आप पितरोंके लिये प्राणतुल्य और ब्राह्मणोंके लिये जीवनस्वरूपिणी हैं । आप श्राद्धकी अधिष्ठात्री देवी हैं और श्राद्ध आदिका फल प्रदान करनेवाली हैं ॥
हे सुव्रते ! आप नित्य , सत्य तथा पुण्यमय विग्रहवाली हैं । आप सृष्टिके समय प्रकट होती हैं तथा प्रलयके समय तिरोहित हो जाती हैं ॥
आप ॐ , स्वस्ति , नमः स्वाहा , स्वधा तथा दक्षिणा रूपमें विराजमान हैं । चारों वेदोंने आपकी इन मूर्तियोंको अत्यन्त प्रशस्त बतलाया है । प्राणियोंके कर्मोंकी पूर्तिके लिये ही परमेश्वरने आपकी ये मूर्तियाँ बनायी हैं ॥
ऐसा कहकर ब्रह्माजी ब्रह्मलोकमें अपनी सभामें विराजमान हो गये । उसी समय भगवती स्वधा सहसा प्रकट हो गयीं । तब ब्रह्माजीने उन कमलमुखी स्वधादेवीको पितरोंके लिये समर्पित कर दिया । उन भगवतीको पाकर पितरगण अत्यन्त हर्षित हुए और वहाँसे चले गये । जो मनुष्य एकाग्रचित्त होकर भगवती स्वधाके इस पवित्र स्तोत्रका श्रवण करता है , उसने मानो सम्पूर्ण तीर्थोंमें स्नान कर लिया । वह इसके प्रभावसे वांछित फल प्राप्त कर  लेता है ॥

Tuesday, 20 September 2022

इन्द्र कृत सुरभि स्तुति (श्रीमद्देवीभागवत से)

इन्द्र कृत सुरभि स्तुति (श्रीमद्देवीभागवत से)

एक समयकी बात है , वाराहकल्पमें भगवान् विष्णुकी मायासे देवी सुरभिने तीनों लोकोंमें दूध देना बन्द कर दिया , जिससे समस्त देवता आदि चिन्तित हो गये । ब्रह्मलोकमें जाकर उन्होंने ब्रह्माकी स्तुति की , तब ब्रह्माजीकी आज्ञासे इन्द्र सुरभिकी स्तुति करने लगे ॥

पुरन्दर उवाच 
नमो देव्यै महादेव्यै सुरभ्यै च नमो नमः । 
गवां बीजस्वरूपायै नमस्ते जगदम्बिके ॥ 
नमो राधाप्रियायै च पद्मांशायै नमो नमः । 
नमः कृष्णप्रियायै च गवां मात्रे नमो नमः ॥
कल्पवृक्षस्वरूपायै सर्वेषां सततं परे।
क्षीरदायै धनदायै बुद्धिदायै नमो नमः ॥
शुभायै च सुभद्रायै गोप्रदायै नमो नमः । 
यशोदायै कीर्तिदायै धर्मदायै नमो नमः ॥
स्तोत्र श्रवणमात्रेण तुष्टा हृष्टा जगत्प्रसूः | 
आविर्बभूव तत्रैव ब्रह्मलोके सनातनी ॥
महेन्द्राय वरं दत्त्वा वाञ्छितं चापि दुर्लभम् । 
जगाम सा च गोलोकं ययुर्देवादयो गृहम् ॥
बभूव विश्वं सहसा दुग्धपूर्णं च नारद ।
 दुग्धं घृतं ततो यज्ञस्ततः प्रीतिः सुरस्य च ॥
इदं स्तोत्रं महापुण्यं भक्तियुक्तश्च यः पठेत् । 
स गोमान् धनवांश्चैव कीर्तिमान्पुत्रवांस्तथा ॥
स स्नातः सर्वतीर्थेषु सर्वयज्ञेषु दीक्षितः । 
इह लोके सुखं भुक्त्वा यात्यन्ते कृष्णमन्दिरे ॥
सुचिरं निवसेत्तत्र करोति कृष्णसेवनम् । 
न पुनर्भवनं तत्र ब्रह्मपुत्रो भवेत्ततः ॥

अर्थात्:-

पुरन्दर बोले- देवीको नमस्कार है , महादेवी सुरभिको बार - बार नमस्कार है । हे जगदम्बिके ! गौओंकी बीजस्वरूपिणी आपको नमस्कार है । राधाप्रियाको नमस्कार है , देवी पद्मांशाको बार - बार नमस्कार है , कृष्णप्रियाको नमस्कार है और गौओंकी जननीको बार बार नमस्कार है । हे परादेवि ! सभी प्राणियोंके लिये कल्पवृक्षस्वरूपिणी , दुग्ध देनेवाली , धन प्रदान करनेवाली तथा बुद्धि देनेवाली आपको बार - बार नमस्कार है । शुभा , सुभद्रा तथा गोप्रदाको बार - बार नमस्कार है । यश , कीर्ति तथा धर्म प्रदान करनेवाली भगवती सुरभिको बार - बार नमस्कार है ।
इस स्तोत्रको सुनते ही जगज्जननी सनातनी देवी सुरभि सन्तुष्ट तथा प्रसन्न होकर उस ब्रह्मलोकमें प्रकट हो गयीं ।
देवराज इन्द्रको दुर्लभ वांछित वर प्रदान करके वे गोलोकको चली गयीं और देवता आदि अपने अपने स्थानको चले गये ।
हे नारद ! उसके बाद विश्व सहसा दुग्धसे परिपूर्ण हो गया । दुग्ध होनेसे घृतका प्राचुर्य हो गया और उससे यज्ञ होने लगा , जिससे देवताओंको सन्तुष्टि होने लगी ।
जो भक्तिपूर्वक इस परम पवित्र स्तोत्रका पाठ करता वह गौओंसे सम्पन्न , धनवान् , यशस्वी तथा पुत्रवान् हो जाता है । उसने मानो सम्पूर्ण तीर्थोंमें स्नान कर लिया तथा वह सभी यज्ञोंमें दीक्षित हो गया । वह इस लोकमें सुख भोगकर अन्तमें श्रीकृष्ण के धाम में चला जाता है । वह वहाँ दीर्घकालतक निवास करता है और भगवान् श्रीकृष्णकी सेवामें संलग्न रहता है । उसका पुनर्जन्म नहीं होता , वह ब्रह्मपुत्र ही हो जाता है ॥

Sunday, 18 September 2022

देवता और पितरों का श्राद्धान्न ग्रहण करके अजीर्ण होना और उसका निवारण संबंधी उपाख्यान (महाभारत से)

देवता और पितरों का श्राद्धान्न ग्रहण करके अजीर्ण होना और उसका निवारण संबंधी उपाख्यान (महाभारत से)

भीष्मजी कहते हैं - युधिष्ठिर ! इस प्रकार जब महर्षि निमि सबसे पहले श्राद्धमें प्रवृत्त हुए , उसके बाद सभी महर्षि शास्त्रविधिके अनुसार पितृयज्ञका अनुष्ठान करने लगे ॥

सदा धर्ममें तत्पर रहनेवाले और नियमपूर्वक व्रत धारण करनेवाले महर्षि पिण्डदान करनेके पश्चात् तीर्थके जलसे पितरोंका तर्पण भी करते थे ॥

भारत ! धीरे - धीरे चारों वर्णोंके लोग श्राद्धमें देवताओं और पितरोंको अन्न देने लगे । लगातार श्राद्धमें भोजन | करते - करते वे देवता और पितर पूर्ण तृप्त हो गये । अब वे अन्न पचानेके प्रयत्नमें लगे । अजीर्णसे उन्हें विशेष कष्ट होने लगा । तब वे सोम देवताके पास गये एवं अजीर्णसे पीड़ित पितर इस प्रकार बोले — ' देव ! हम श्राद्धान्नसे बहुत कष्ट पा रहे अब आप हमारा कल्याण कीजिये ' ॥

तब सोमने उनसे कहा - ' देवताओ ! यदि आप कल्याण चाहते हैं तो ब्रह्माजीकी शरणमें जाइये , वही आपलोगोंका कल्याण करेंगे ' ॥

भरतनन्दन ! सोमके कहनेसे वे पितरोंसहित देवता मेरुपर्वतके शिखरपर विराजमान ब्रह्माजीके पास गये ॥

पितरोंने कहा- भगवन् ! निरन्तर श्राद्धका अन्न खानेसे हम अजीर्णतावश अत्यन्त कष्ट पा रहे हैं । देव ! हमलोगोंपर कृपा कीजिये और हमें कल्याणके भागी बनाइये ॥

पितरोंकी यह बात सुनकर स्वयम्भू ब्रह्माजीने इस प्रकार कहा - ' देवगण ! मेरे निकट ये अग्निदेव विराजमान हैं । ये ही तुम्हारे कल्याणकी बात बतायेंगे

अग्नि बोले - देवताओ और पितरो ! अबसे श्राद्धका अवसर उपस्थित होनेपर हमलोग साथ ही भोजन किया करेंगे । मेरे साथ रहनेसे आपलोग उस अन्नको पचा सकेंगे , इसमें संशय नहीं है ॥

नरेश्वर ! अग्निकी यह बात सुनकर वे पितर निश्चिन्त हो गये ; इसीलिये श्राद्धमें पहले अग्निको ही भाग अर्पित किया जाता है ॥

पुरुषप्रवर ! अग्निमें हवन करनेके बाद जो पितरोंके निमित्त पिण्डदान दिया जाता है , उसे ब्रह्मराक्षस दूषित नहीं करते । अग्निदेवके विराजमान रहनेपर राक्षस वहाँसे भाग जाते हैं । 

सबसे पहले पिताको पिण्ड देना चाहिये , फिर पितामहको । तदनन्तर प्रपितामहको पिण्ड देना चाहिये । यह श्राद्धकी विधि बतायी गयी है । श्राद्धमें एकाग्रचित्त हो प्रत्येक पिण्ड देते समय सावित्री का उच्चारण करना चाहिये ॥

पिण्ड - दानके आरम्भमें पहले अग्नि और सोमके लिये जो दो भाग दिये जाते हैं , उनके मन्त्र क्रमश : इस प्रकार हैं - ' अग्नये कव्यवाहनाय स्वाहा ' , ' सोमाय पितृमते स्वाहा । '

 जो स्त्री रजस्वला हो अथवा जिसके दोनों कान बहरे हों , उसको श्राद्धमें नहीं ठहरना चाहिये । दूसरे वंशकी स्त्रीको भी श्राद्धकर्ममें नहीं लेना चाहिये । 

जलको तैरते समय पितामहों ( के नामों ) का कीर्तन करे । किसी नदीके तटपर जानेके बाद वहाँ पितरोंके लिये पिण्डदान और तर्पण करना चाहिये ॥ 

पहले अपने वंशमें उत्पन्न पितरोंका जलके द्वारा तर्पण करके तत्पश्चात् सुहृद् और सम्बन्धियोंके समुदायको जलांजलि देनी चाहिये ॥

जो चितकबरे रंगके बैलोंसे जुती गाड़ीपर बैठकर नदीके जलको पार कर रहा हो , उसके पितर इस समय मानो नावपर बैठकर उससे जलांजलि पानेकी इच्छा रखते हैं । अतः जो इस बातको जानते हैं , वे एकाग्रचित्त हो नावपर बैठनेपर सदा ही पितरोंके लिये जल दिया करते हैं । 

महीनेका आधा समय बीत जानेपर कृष्णपक्षकी अमावास्या तिथिको अवश्य श्राद्ध करना चाहिये । पितरोंकी भक्तिसे मनुष्यको पुष्टि , आयु , वीर्य और लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है ॥

कुरुकुलश्रेष्ठ ! ब्रह्मा , पुलस्त्य , वसिष्ठ , पुलह , अंगिरा , क्रतु और महर्षि कश्यप - ये सात ऋषि महान् योगेश्वर और पितर माने गये हैं । राजन् ! इस प्रकार यह श्राद्धकी उत्तम विधि बतायी गयी ॥

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Thursday, 15 September 2022

श्राद्ध में पितरों के तृप्ति विषयक वर्णन [महाभारत अनुसार]

श्राद्ध में पितरों के तृप्ति विषयक वर्णन [महाभारत अनुसार]

युधिष्ठिरने पूछा- पितामह ! पितरोंके लिये दी हुई कौन - सी वस्तु अक्षय होती है ? किस वस्तुके दानसे पितर अधिक दिनतक और किसके दानसे अनन्त कालतक तृप्त रहते हैं ? 

भीष्मजीने कहा – युधिष्ठिर ! श्राद्धवेत्ताओंने श्राद्ध कल्पमें जो हविष्य नियत किये हैं , वे सब - के - सब काम्य हैं । मैं उनका तथा उनके फलका वर्णन करता हूँ , सुनो ॥

हे नरेश्वर ! तिल , ब्रीहि , जौ , उड़द , जल और फल - मूलके द्वारा श्राद्ध करनेसे पितरोंको एक मासतक तृप्ति बनी रहती है ।

मनुजीका कथन है कि जिस श्राद्धमें तिलकी मात्रा अधिक रहती है , वह श्राद्ध अक्षय होता है । श्राद्ध सम्बन्धी सम्पूर्ण भोज्य पदार्थोंमें तिलोंका प्रधानरूपसे उपयोग बताया गया है ।

यदि श्राद्धमें गव्य पदार्थ दान किया जाय तो उससे पितरोंको एक वर्षतक तृप्ति होती बतायी गयी है । गव्य पदार्थ का जैसा फल बताया गया है , वैसा ही घृतमिश्रित खीरका भी समझना चाहिये ।

युधिष्ठिर ! इस विषयमें पितरोंद्वारा गायी हुई गाथा जिसका विज्ञ पुरुष गान करते हैं, पूर्वकालमें भगवान् सनत्कुमारने मुझे यह गाथा बतायी थी ।

पितर कहते हैं - ' क्या हमारे कुलमें कोई ऐसा पुरुष उत्पन्न होगा , जो दक्षिणायनमें आश्विन मासके कृष्णपक्षमें मघा और त्रयोदशी तिथिका योग होनेपर हमारे लिये घृतमिश्रित खीरका दान करेगा ? 
अथवा वह नियमपूर्वक व्रतका पालन करके मघा नक्षत्रमें ही हाथीके शरीरकी छायामें बैठकर उसके कानरूपी व्यजनसे हवा लेता हुआ अन्न - विशेष चावलका बना हुआ पायस या लौहशाकसे विधिपूर्वक हमारा श्राद्ध करेगा ? 

बहुत - से पुत्र पानेकी अभिलाषा रखनी चाहिये , उनमेंसे यदि एक भी उस गया - तीर्थकी यात्रा करे , जहाँ लोकविख्यात अक्षयवट विद्यमान है , जो श्राद्धके फलको अक्षय बनानेवाला है ॥

पितरोंकी क्षय तिथिको जल , मूल , फल , उसका गूदा और अन्न आदि जो कुछ भी मधुमिश्रित करके दिया जाता है , वह उन्हें अनन्तकालतक तृप्ति देनेवाला है ' ॥

Keywords:- Shraddh, Shraddha, श्राद्ध, पितृश्राद्ध, पितर, Pitar, Pitru

Sunday, 11 September 2022

श्राद्ध में पितरों के लिये प्रदान किये गये हव्य - कव्य की प्राप्ति का विवरण [मत्स्य पुराणोक्त]

श्राद्ध में पितरों के लिये प्रदान किये गये हव्य - कव्य की प्राप्ति का विवरण [मत्स्य पुराणोक्त]

ऋषियोंने पूछा – सूतजी ! मनुष्योंको ( पितरोंके निमित्त ) हव्य और कव्य किस प्रकार देना चाहिये ? इस मृत्युलोकमें पितरोंके लिये प्रदान किये गये हव्य कव्य पितृलोकमें स्थित पितरोंके पास कैसे पहुँच जाते हैं ? यहाँ उनको पहुँचानेवाला कौन कहा गया है ? यदि मृत्युलोकवासी ब्राह्मण उन्हें खा जाता है अथवा अग्निमें उनकी आहुति दे दी जाती है तो अपने कर्मानुसार शुभ एवं अशुभ योनियोंमें गये हुए प्रेतोंद्वारा उस पदार्थका उपभोग कैसे किया जाता है ? ॥ 

सूतजी कहते हैं- ऋषियो ! पितरोंको वसुगण , पितामहोंको रुद्रगण तथा प्रपितामहोंको आदित्यगण कहा जाता है- ऐसी वैदिकी श्रुति है । पितरोंके नाम और गोत्र ( उनके निमित्त प्रदान किये गये ) हव्य कव्यको उनके पास पहुँचानेवाले हैं । अतिशय भक्तिपूर्वक उच्चरित श्राद्धके मन्त्र भी कारण हैं एवं श्रद्धाके उपयोग भी हेतु है । अग्निष्वात्त आदि पितरोंके आधिपत्य - पदपर स्थित हैं । उन देव - पितरोंके समक्ष जो खाद्य पदार्थ पितरोंका नाम , गोत्र , काल और देशका उच्चारण करके श्रद्धासे अर्पित किया जाता है , वह पितृगणोंको यदि वे जन्मान्तरमें भी गये हुए हों तो भी उन्हें तृप्त कर देता है । वह उस समय उस योनिके लिये उपयुक्त आहारके रूपमें परिणत हो जाता है । यदि शुभ कर्मोंके प्रभावसे पिता देवयोनिमें उत्पन्न हो गये हैं तो उनके उद्देश्यसे दिया गया अन अमृत होकर देवयोनिमें भी उन्हें प्राप्त होता है । वह श्राद्धान्न दैत्ययोनिमें भोगरूपमें और पशुयोनिमें तृणरूपमें बदल जाता है । सर्पयोनिमें वह | वायुरूपसे सर्पके निकट पहुँचता है । यक्ष - योनिमें वह पीनेवाला पदार्थ तथा राक्षसयोनिमें मांस हो जाता है । दानवयोनिमें मायारूपमें प्रेतयोनिमें रुधिर और जलके रूपमें तथा मानवयोनिमें नाना प्रकारके भोग - रसोंसे युक्त अन्न - पानादिके रूपमें परिवर्तित हो जाता है । रमण करनेकी शक्ति , सुन्दरी स्त्रियाँ , भोजन करनेके पदार्थ , भोजन पचानेकी शक्ति , प्रचुर सम्पत्तिके साथ - साथ दान देनेकी निष्ठा , सुन्दर रूप और स्वास्थ्य- ये सभी श्रद्धारूपी वृक्षके पुष्प बतलाये गये हैं और ब्रह्मप्राप्ति उसका फल है । पितृगण प्रसन्न होनेपर मनुष्योंको आयु , अनेक पुत्र , धन , विद्या , स्वर्ग , मोक्ष , सुख और राज्य प्रदान करते हैं । सुना जाता है कि कौशिकके पुत्र पूर्वकालमें ( श्राद्धके प्रभावसे व्याध , मृग , चक्रवाक आदि योनियोंमें ) पाँच बार जन्म लेनेके पश्चात् मुक्त होकर भगवान् विष्णुके परमपद वैकुण्ठलोकको चले गये थे ॥

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Tuesday, 6 September 2022

दशविध ब्राह्मण (दश प्रकार के ब्राह्मण) [अत्रिस्मृति अनुसार]

देव , मुनि , द्विज , राजा , वैश्य , शूद्र , निषाद , पशु , म्लेच्छ , चांडाल यह दश प्रकार के ब्राह्मण कहे हैं ।

जो प्रतिदिन संध्या , स्नान , जप , होम , देवपूजा, अतिथिकी सेवा और जो वैश्वदेव करते है उनको “ देव ” ब्राह्मण कहते हैं अर्थात् इन सब कर्मों के करनेवाले ब्राह्मणोंकी देव संज्ञा है ।

 शाक , पत्ते , फल , मूलको भक्षण करनेवाला और जो वनमें निवासकर नित्य श्राद्ध में रत , रहता है ऐसे ब्राह्मणको “ मुनि " कहा है । 

जो प्रतिदिन वेदान्तको पढ़ता है और जिसने सबका संग त्यागदिया है , सांख्य और योग के ज्ञानमें जो तत्पर है उस ब्राह्मणको “ द्विज ” कहा है ।

 जिसने रणभूमिमें सबके सन्मुख धन्वीयोंको युद्धके आरंभ में जीता हो और अस्त्रों से परास्त किया हो उस ब्राह्मणको “ क्षत्री " / " राजा " कहते हैं ।

खेतीके कार्यमें रत और गौ- पालनमें लीन , और वाणिज्यके व्यवहार में जो ब्राह्मण तत्पर हो उसको ‘ वैश्य ' कहते हैं ।

 लाख , लवण , कुसुंभ , घी , मिठाई दूध और मांसको जो ब्राह्मण बेचता है उसको ' शूद्र ' कहते हैं ।

 चोर , तस्कर (बलपूर्वक दूसरेके धनको हरण करनेवाला) सूचक ( निकृष्ट सलाहका देनेवाला ) दंशक (कडवा बोलनेवाला) और सर्वदा मत्स्य मांसके लोभी ब्राह्मण को " निषाद " कहते हैं ।

जो ब्रह्मतत्त्व को न जानकर केवल यज्ञोपवीत के बलसे ही अत्यन्त गर्व प्रकाश करता है , इस पापसे उस ब्राह्मण को ' पशु ' कहते हैं ।

जो निःशंकभावसे ( पापका भय न करकै ) बावडी , कूप , तालाब , बाग , छोटा तालाव इनको बन्द करता है उस ब्राह्मणको ' म्लेच्छ ' कहा है ।

 क्रियाहीन ( संध्या इत्यादि नित्य नैमित्तिक कर्मोसे हीन ) , मूर्ख , सर्वधर्म ( सारे कर्तव्य कर्म / धृति आदि धर्म लक्षणों ) से रहित और सर्व प्राणियों के प्रति जो निर्दयता प्रकाश करता है उस ब्राह्मणको ' चांडाल ' कहते हैं ।

Saturday, 3 September 2022

श्रीगणेशगीता में योग

वरेण्य उवाच
किं सुखं त्रिषु लोकेषु देवगन्धर्वयोनिषु ।
भगवन् कृपया तन्मे वद विद्या विशारद ।।२०।।

अर्थ:- वरेण्य बोले - भगवन् ! तीनों लोकों तथा देवता और गंधर्व आदि योनियों में यथार्थ सुख क्या है ? हे विद्याविशारद ! कृपाकर आप यह मुझसे वर्णन कीजिये ।।

श्रीगजानन उवाच
आनन्दमश्नुतेऽसक्तः स्वात्मारामो निजात्मनि ।
अविनाशि सुखं तद्धि न सुखं विषयादिषु ।।२१।।

अर्थ:- श्रीगणेश जी बोले - जो अपनी आत्मा में ही रमण करते हैं और कहीं आसक्त नहीं होते, वे ही आनन्द भोगते हैं, उसीका नाम अविनाशी सुख है, विषयादिकों में (वास्तविक) सुख नहीं ।।

विषयोत्थानि सौख्यनि दुःखानां तानि हेतवः ।
उत्पत्तिनाशयुक्तानि तत्रासक्तो न तत्त्ववित् ।।२२।।

अर्थ:- विषयों से उत्पन्न हुए सुख तो दुःख के ही कारण हैं और उत्पत्ति तथा नाशवाले हैं । तत्त्ववित् उनमें आसक्त नहीं होते ।।

कारणे सति कामस्य क्रोधस्य सहते च यः ।
तौ जेतुं वर्ष्मविरहात्स सुखं चिरमश्नुते ।।२३।।

अर्थ:- काम, क्रोध आदि का कारण उपस्थित रहने पर भी जो उनके आवेगों को रोक लेता है तथा शरीर के प्रति अनासक्त होकर उन्हें जीतने का प्रयत्न करता है, वह बहुत काल तक सुख भोगता है ।

अन्तर्निष्ठोऽन्तःप्रकाशोऽत्न्तःसुखोऽन्तारतिर्लभेत् ।
असन्दिग्धोऽक्षयं ब्रह्म सर्वभूतहितार्थकृत् ।।२४।।

अर्थ:- जिनके हृदय में निष्ठा है, ज्ञान का प्रकाश है, सुख है तथा वैराग्य है, जो सब प्राणियों का हित करता है, वह निश्चय ही अक्षय ब्रह्म को प्राप्त करता है ।

जेतारः षड्रिपूणां ये शमिनो दमिनस्तथा ।
तेषां समन्ततो ब्रह्म स्वात्मज्ञानां विभात्यहो ।।२५।।

अर्थ:- जो काम क्रोधादि छहों शत्रुओं को जीत चुके हैं, जो शम और दम का पालन करते हैं, उन आत्मज्ञानियों को सर्वत्र ब्रह्म ही दिखता है ।

आसनेषु समासीनसत्यक्त्वेमान् विषयान् बहिः ।
संस्तभ्य भ्रुकुटीमास्ते प्राणायामपरायणः ।।२६।।

अर्थ:- सब बाह्य विषयों को त्यागकर एकान्त में आसन में स्थित हो, दृष्टि को भ्रूमध्यमें स्थिरकर प्राणायाम करें ।

प्राणायाममं तु संरोधं प्राणापानसमुद्भवम् ।
वदन्ति मुनयस्तं च त्रिधाभुतं विपश्चितः ।।२७।।

अर्थ:- प्राण और अपान वायुके रोकने को प्राणायाम कहते हैं, बुद्धिमान् ऋषियों ने उसके तीन भेद कहे हैं ।

प्रमाणं भेदतो विद्धि लघु मध्यममुत्तमम् ।
दशभिर्द्व्यधिकैर्वर्णैः प्राणायामो लघु: स्मृतः ।।२८।।

अर्थ:- प्रमाण भेद से प्राणायाम लघु, मध्यम और उत्तम - तीन प्रकारका है, बारह अक्षर का प्राणायाम लघु कहलाता है ।

चतुर्विंशत्यक्षरो यो मध्यमः स उदाहृतः ।
षट्त्रिंशल्लघुवर्णो यः उत्तमः सोऽभिधीयते ।।२९।।

अर्थ:- चौबीस अक्षरों का मध्यम और छत्तीस अक्षरों का उत्तम कहा जाता है । 

सिहं शार्दूलकं वापि मत्तेभं मृदुतां यथा ।
नयन्ति प्राणिनस्तद्वत्प्राणापानौ सुसाधयेत् ।।३०।।

अर्थ:- सिंह, व्याघ्र अथवा मतवाले हाथी को जैसे मनुष्य नम्र करके अपने अधीन करता है, इसी प्रकार प्राण और अपान वायु को साधना चाहिये ।।

पीडायन्ति मृगांस्ते न लोकान् वश्यंगतान्नृप ।
दहत्येनस्तथा वायु: संस्तब्धो न च तत्तनुम् ।।३१।।

अर्थ:- हे राजन् ! जिस प्रकार अपने वश में हुए सिंहादि मृगों को सताते हैं , किन्तु वश में करने वाले लोगों को पीड़ा नहीं देते, इसी प्रकार यह वायु प्राणायाम से स्थिर होकर पापों को भस्म करता है , परन्तु शरीर को नहीं जलाता । 

यथा यथा नरः कश्चित्सोपानावलिमाक्रमेत् ।
तथा तथा वशीकुर्यात्प्राणापानौ हि योगवित् ।।३२।।

अर्थ:- जिस प्रकार क्रम से मनुष्य सीढ़ियों पर चढ़ता है , उसी प्रकार योगी के लिये क्रमसे प्राणापान को वशमें करना उचित है ।

पुरकं कुंभकं चैव रेचकं च ततोऽभ्यसेत् ।
अतीतानागतज्ञानी ततः स्याज्जगतीतले ।।३३।।

अर्थ:- पूरक- रेचक और कुम्भक का अभ्यास कर के यह प्राणी इस जगत में भूत, भविष्य तथा वर्तमान तीनों कालका ज्ञाता हो जाता है ।

प्राणायामैर्द्वादशभिरुत्तमैर्धारणा मता ।
योगस्तु धारणे द्वे स्याद्योगीशस्ते सदाभ्यसेत् ।।३४।।

अर्थ:- बारह उत्तम प्राणायाम से धारणा होती है, दो धारणा से योग सिद्ध होता है , योगी निरन्तर धारणा का अभ्यास करे ।

एवं यः कुरुते राजंस्त्रिकालज्ञ: स जायते ।
अनायासेन तस्य स्याद्वश्यं लोकत्रयं नृप ।।३५।।

अर्थ:- हे राजन् ! जो इस प्रकार साधना करते हैं , उन्हें त्रिकाल का ज्ञान हो जाता है, और अनायास त्रिलोक उनके वश में हो जाता है ।

ब्रह्मरूपं जगत्सर्वं पश्यति स्वान्तरात्मनि ।
एवं योगश्च संन्यासः समानफलदायिनौ ।।३६।।

अर्थ:- वह अपने अन्तरात्मामें सब जगत को ब्रह्मरूप देखता है । इस प्रकारसे कर्मसंन्यास और कर्मयोग दोनों समान फल के देने वाले हैं ।

जन्तुनां हितकर्तारं कर्मणां फलदायिनम् ।
मां ज्ञात्वा मुक्तिमाप्नोति त्रैलोक्यस्येश्वरं विभुम् ।।३७।।

अर्थ:- सब प्राणियों के हितकारी और कर्म का फल देनेवाले एवं त्रिलोकी के व्यापक मुझ ईश्वर को जान कर मनुष्य मुक्त हो जाते हैं ।

श्रीगणेश गीता, अध्याय ४, श्लोक २०-३७

Friday, 2 September 2022

खेचरी मुद्रा



मुद्रैषा खेचरी प्रोक्ता भक्तानां अनुरोधतः ।
सिद्धिनां जननी ह्येषा मम प्राणाधिके प्रिये ।
निरन्तर कृताभ्यासम् पीयूषम् प्रत्यहं पीवेत् ।
तेन निग्रहम् सिद्धिस्यात् मृत्यु मातंग केशरी ।।

अर्थात् - (शिव जी ने देवी से कहा) हे प्रिये ! भक्तों के अनुरोध के कारण ही मैंने अपने प्राणों से प्रिय इस खेचरी मुद्रा को प्रकाशित किया जो सिद्धियों को जन्म देने वाली माता समान है । जो इसको निरन्तर अभ्यास करता है वह नित्य ही अमृत का पान करता है और निग्रह की (मृत्यु ; मानसिक अस्थिरता और इंद्रियों के वहिर्मुखी स्वभाव से मुक्ति की) सिद्धि होती है , और मृत्यु को वह ऐसे जीत लेता है जैसे सिंह और हाथी की लड़ाई में सिंह विजयी होता है ।

कपाल कुहरे जिह्वा प्रविष्टा विपरीतगा ।
भ्रुवौ: अन्तर्गता दृष्टि मुद्रा भवति खेचरी ।

अर्थात् - कपाल के गर्त में जिह्वा को विपरीत दिशा में प्रवेश करा कर दोनो भौं के बीच भेद करके जाने बाली दृष्टि रखने से वो खेचरी मुद्रा बनती है ।

चित्तं चरति खे यस्य जिह्वां चरति खे यतः ।
तेनेया खेचरी मुद्रा सर्व सिद्ध नमस्कृता ।।

अर्थात् - जिसकी चेतना शून्य में विचरण कर रही हो , जिसकी  जिह्वा शून्य में उठगयी हो, वही खेचरी मुद्रा है जिसे सारे सिद्ध प्रणाम करते हैं ।

लावण्यं  च भवेत् गात्रे समाधि: जायते ध्रुवं ।
कपालवक्त्र संयोगे रसना रसमाप्नुयात् ।।

अर्थात् -  कपाल और मुख के इस संयोग से जिह्वा में दिव्य रसों की अनुभूति होती है, शरीर में लावण्य की वृद्धि होती है तथा समाधि होती ही है ।

मनः स्थिरं यस्य बिनावलम्बनम् ।
वायु स्थिरो यस्य बिनावरोधनम् ।
दृष्टि स्थिरा यस्य बिनावलोकनम् ।
स एव मुद्रा विचरन्ति खेचरी ।।

अर्थात् - बिना किसी आधार के जब मन स्थिर हो जाए , बिना अवरोध के बिना रोके जब वायु (श्वास) अपने आप स्थिर हो जाए , दृष्टि स्थिर हो किन्तु किसीको देख न रहा हो, स्थूल जगत से दृश्य संबंधी संवेदनाओं का अभाव हो; ऐसी जो स्थिति , उसको खेचरी मुद्रा जानो ।

न रोगो मरणं तस्य न निद्रा न क्षुधा तृषा ।
न च मूर्च्छा भवेत् तस्य यो मुद्रा वेत्ति खेचरीं ।

अर्थात् - जो खेचरी मुद्रा को जानता है , उसके लिए न रोग है, न मरण, न निद्रा है, न क्षुधा और तृष्णा है और न किसी प्रकार की मूर्च्छा है ।

जरामृत्युगदघ्नो यः खेचरी वेत्ति भूतले । 
ग्रंथतः च अर्थतः चैव तदभ्यास प्रयोगतः ।
तं मुने सर्वभावेन गुरु गत्त्वा समाश्रयेत् ।।

अर्थात् - ग्रन्थ से, अर्थ से और अभ्यास से जो जरा, मृत्यु तथा व्याधि विनाशक इस खेचरी मुद्रा को जानता हो, उसी गुरु से आश्रय ग्रहण कर इस विद्या का अभ्यास करना चाहिए ।

Keywords:- Khechari, Khechari Mudra, खेचरी, खेचरी मुद्रा


Thursday, 1 September 2022

शिव संहिता में महामुद्रा

शिव संहिता में महामुद्रा

महामुद्रां प्रवक्ष्यामि तन्त्रेऽस्मिन्मम वल्लभे ।
यां प्राप्य सिद्धाः सिद्धि च कपिलाद्याः पुरागताः ।। 26 ।।

(शिवजी ने कहा) - हे प्रिये ! में इस तन्त्र में महामुद्रा की बात कहूंगा , जिसे प्राप्त करके कपिल आदि प्राचीन सिद्ध ऋषियों ने सिद्धि प्राप्त की थी ।

अपसव्येन संपीड्य पादमुलेन सादरम् ।
गुरुपदेशतो योनिं गुदमेढ्रान्तरालगाम् ।।27।।
सव्यं प्रसारितं पाद धृत्वा पाणियुगेन वै ।
नव द्वाराणि संयम्य चिबुकं हृदयोपरि ।। 28 ।।
चित्तं चित्तपथे दत्त्वा प्रभवेद्वायुसाधनम् ।
महामुद्रा भवेदेषा सर्वतन्त्रेषु गोपिता ।। 29 ।।
वामाङ्गेन समभ्यस्य दक्षाङ्गेनाभ्यसेत्पुनः ।
प्राणायामं समं कृत्वा योगी नियतमानसः ।। 30 ।।

गुरु उपदेश अनुसार बाएँ पैर के एड़ी को गुद (मलद्वार) एवं मेढ़्र (जननाङ्ग) के मध्यस्थ योनि स्थान में लगाकर दवाएं । दायाँ पैर सीधा फैला कर उसे दोनों हाथ से पकड़ लें। शरीर के नवद्वारों को संयमित कर चिबुक (ठुड्डी) को हृदय पर स्थापित करें । चित्त को चित्तपथ में लगाकर वायु की साधना करें । यह महामुद्रा कहलाती है, जिसे सभी तन्त्रों में गोपनीय कहा गया है । इसे पहले वामाङ्ग में अभ्यास करके पुनः दक्षिणाङ्ग में अभ्यास करें । संयत चित्त वाले योगी को चाहिए कि, इस प्रकार से प्राणायाम को सम करे ।

अनेन विधिना योगी मन्दभाग्योऽपि सिध्यति ।
सर्वसामेव नाड़ीनां चालनं बिन्दुमारणं ।। 31 ।।
जीवनं तु कषायस्य पातकानां विनाशनम् ।
कुण्डलीतापनं वायोर्ब्रह्मरन्ध्रेप्रवेशनम् ।। 32 ।।

इस विधि से (महामुद्रा से) मन्दभाग्य (हतभाग्य) योगी भी सिद्धिलाभ करलेता है । इसके प्रभाव से समस्त नाड़ियों का परिचालन होकर बिन्दुमारण (बिन्दु/वीर्य का स्थिरीकरण) होता है । इसके द्वारा कुण्डलिनी को जगाकर वायु को ब्रह्मरन्ध्र में प्रवेश कराने की क्षमता प्राप्त होती है / कुण्डलिनी जाग्रत हो कर वायु ब्रह्मरन्ध्र में प्रवेश करता है ।

सर्वरोगोपशमनं जठाराग्निविवर्धनम् ।
वपुषा कान्तिममलां जरामृत्युविनाशनम् ।। 33 ।।
वांछितार्थफलंसौख्यंमिन्द्रियाणाञ्च मारणम् ।
एतदुक्तानि सर्वाणि योगारूढ़स्य योगिनः ।
भवेदभ्यासतोऽवश्यं नात्र कार्या विचारणा ।। 34 ।।

इसके अभ्यास से सभीरोगों का प्रशमन होता है, जठाराग्नि की वृद्धि होती है । शरीर में अमल कान्ति उत्पन्न होती है तथा जरामृत्यु आदि का विनाश होता है । समस्त अभिलषित वस्तुओं की तथा सुख की प्राप्ति होती है एवं इन्द्रिय मारण (इन्द्रिय संयम) होता है । इसमें कहे गए लाभ योगारूढ़ योगी को अवश्य प्राप्त होते हैं । अभ्यास से अवश्य ही इनकी उपलब्धि होती है, इसमें सोच विचार करने की आवश्यकता नहीं है ।

गोपानीया प्रयत्नेन मुद्रेयं सुरपूजिते ।
यान्तु प्राप्य भवाम्भोधेः पारं गच्छन्ति योगिनः ।। 35 ।।
मुद्रा कामदुघा ह्येषा साधकानां मयोदिता ।
गुप्ताचारेण कर्तव्या न देया यस्य कस्यचित् ।। 36 ।।

हे देव पूजिता ! आप इस मुद्रा को प्रयत्न के साथ गोपनीय रखना। इसकी उपलब्धि से योगीजन भवसागर को पार कर जाते हैं । 
मेरे द्वारा प्रकशित यह मुद्रा साधकों के लिए कामधेनु है (सभी इच्छाओं की पूर्ति करने वाली)। इसे गुप्तरूप से साधन करना चाहिए तथा किसी अयोग्य अनाधिकारी व्यक्ति को नहीं देनी चाहिए ।।

Keywords:- Mahamudra, Shiva Samhita, महामुद्रा, शिव संहिता

योगबल से शरीर त्याग कैसे हो ? How to leave body by Yoga

योगबल से कैसे शरीर त्यागना है उसको गीता में भगवान बताते हैं । प्रयाणकाले मनसाऽचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव। भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम...