Sunday, 18 September 2022

देवता और पितरों का श्राद्धान्न ग्रहण करके अजीर्ण होना और उसका निवारण संबंधी उपाख्यान (महाभारत से)

देवता और पितरों का श्राद्धान्न ग्रहण करके अजीर्ण होना और उसका निवारण संबंधी उपाख्यान (महाभारत से)

भीष्मजी कहते हैं - युधिष्ठिर ! इस प्रकार जब महर्षि निमि सबसे पहले श्राद्धमें प्रवृत्त हुए , उसके बाद सभी महर्षि शास्त्रविधिके अनुसार पितृयज्ञका अनुष्ठान करने लगे ॥

सदा धर्ममें तत्पर रहनेवाले और नियमपूर्वक व्रत धारण करनेवाले महर्षि पिण्डदान करनेके पश्चात् तीर्थके जलसे पितरोंका तर्पण भी करते थे ॥

भारत ! धीरे - धीरे चारों वर्णोंके लोग श्राद्धमें देवताओं और पितरोंको अन्न देने लगे । लगातार श्राद्धमें भोजन | करते - करते वे देवता और पितर पूर्ण तृप्त हो गये । अब वे अन्न पचानेके प्रयत्नमें लगे । अजीर्णसे उन्हें विशेष कष्ट होने लगा । तब वे सोम देवताके पास गये एवं अजीर्णसे पीड़ित पितर इस प्रकार बोले — ' देव ! हम श्राद्धान्नसे बहुत कष्ट पा रहे अब आप हमारा कल्याण कीजिये ' ॥

तब सोमने उनसे कहा - ' देवताओ ! यदि आप कल्याण चाहते हैं तो ब्रह्माजीकी शरणमें जाइये , वही आपलोगोंका कल्याण करेंगे ' ॥

भरतनन्दन ! सोमके कहनेसे वे पितरोंसहित देवता मेरुपर्वतके शिखरपर विराजमान ब्रह्माजीके पास गये ॥

पितरोंने कहा- भगवन् ! निरन्तर श्राद्धका अन्न खानेसे हम अजीर्णतावश अत्यन्त कष्ट पा रहे हैं । देव ! हमलोगोंपर कृपा कीजिये और हमें कल्याणके भागी बनाइये ॥

पितरोंकी यह बात सुनकर स्वयम्भू ब्रह्माजीने इस प्रकार कहा - ' देवगण ! मेरे निकट ये अग्निदेव विराजमान हैं । ये ही तुम्हारे कल्याणकी बात बतायेंगे

अग्नि बोले - देवताओ और पितरो ! अबसे श्राद्धका अवसर उपस्थित होनेपर हमलोग साथ ही भोजन किया करेंगे । मेरे साथ रहनेसे आपलोग उस अन्नको पचा सकेंगे , इसमें संशय नहीं है ॥

नरेश्वर ! अग्निकी यह बात सुनकर वे पितर निश्चिन्त हो गये ; इसीलिये श्राद्धमें पहले अग्निको ही भाग अर्पित किया जाता है ॥

पुरुषप्रवर ! अग्निमें हवन करनेके बाद जो पितरोंके निमित्त पिण्डदान दिया जाता है , उसे ब्रह्मराक्षस दूषित नहीं करते । अग्निदेवके विराजमान रहनेपर राक्षस वहाँसे भाग जाते हैं । 

सबसे पहले पिताको पिण्ड देना चाहिये , फिर पितामहको । तदनन्तर प्रपितामहको पिण्ड देना चाहिये । यह श्राद्धकी विधि बतायी गयी है । श्राद्धमें एकाग्रचित्त हो प्रत्येक पिण्ड देते समय सावित्री का उच्चारण करना चाहिये ॥

पिण्ड - दानके आरम्भमें पहले अग्नि और सोमके लिये जो दो भाग दिये जाते हैं , उनके मन्त्र क्रमश : इस प्रकार हैं - ' अग्नये कव्यवाहनाय स्वाहा ' , ' सोमाय पितृमते स्वाहा । '

 जो स्त्री रजस्वला हो अथवा जिसके दोनों कान बहरे हों , उसको श्राद्धमें नहीं ठहरना चाहिये । दूसरे वंशकी स्त्रीको भी श्राद्धकर्ममें नहीं लेना चाहिये । 

जलको तैरते समय पितामहों ( के नामों ) का कीर्तन करे । किसी नदीके तटपर जानेके बाद वहाँ पितरोंके लिये पिण्डदान और तर्पण करना चाहिये ॥ 

पहले अपने वंशमें उत्पन्न पितरोंका जलके द्वारा तर्पण करके तत्पश्चात् सुहृद् और सम्बन्धियोंके समुदायको जलांजलि देनी चाहिये ॥

जो चितकबरे रंगके बैलोंसे जुती गाड़ीपर बैठकर नदीके जलको पार कर रहा हो , उसके पितर इस समय मानो नावपर बैठकर उससे जलांजलि पानेकी इच्छा रखते हैं । अतः जो इस बातको जानते हैं , वे एकाग्रचित्त हो नावपर बैठनेपर सदा ही पितरोंके लिये जल दिया करते हैं । 

महीनेका आधा समय बीत जानेपर कृष्णपक्षकी अमावास्या तिथिको अवश्य श्राद्ध करना चाहिये । पितरोंकी भक्तिसे मनुष्यको पुष्टि , आयु , वीर्य और लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है ॥

कुरुकुलश्रेष्ठ ! ब्रह्मा , पुलस्त्य , वसिष्ठ , पुलह , अंगिरा , क्रतु और महर्षि कश्यप - ये सात ऋषि महान् योगेश्वर और पितर माने गये हैं । राजन् ! इस प्रकार यह श्राद्धकी उत्तम विधि बतायी गयी ॥

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